बुधवार, 20 नवंबर 2019

Flower The Story | नागफनी में फूल

Flower The Story | नागफनी में फूल
दूसरे सभी बच्चों की तरह बचपन में मुझे भी कहानियाँ सुनने का बड़ा शौक था। परी और राजा की कहानियों को सुनने के साथ साथ विभिन्न जमाने की बातों को जानने की विशेष रुचि मुझमें थी। जब मैं अपनी दादी से तरह तरह की कहानियाँ सुनती होती तो अकसर यह भी माँग कर बैठती, 'दादी आपके जमाने में लोग कैसे रहते थे, क्या आज जैसी सुख-सुविधा उन दिनों भी थी ?'

दादी बड़े दुलार से झिड़कती-सी बोलतीं, 'दुत् पगली, आज जैसी सुख-सुविधा हमारे जमाने में कहाँ थी। अनाज पिसाने के लिए भी दूसरे गाँव जाना होता था या फिर औरतें चक्की में अनाज पीसा करती थीं। तब गीत-गवनई खूब होती थी। गीत गाते जाओ, चक्की चलाते जाओ। हमारे जमाने की अजूबा चीज थी - रेल। मैं जब बैठती, रेल की छुक-छुक के साथ मेरा दिल धुक-धुक करने लगता। जान में जान तब आती, जब रेल से उतर जाती।'
मैं देखती अपने जमाने की बात करते हुए दादी के चेहरे पर हर्ष-विषाद, कुतूहल-विस्मय के अनेक रंग आते-जाते रहते।
जब मैं माँ से यह सवाल करती तो माँ भारत की आजादी की लड़ाई के अनेक किस्से सुनातीं। टी.वी. उनके जमाने का चमत्कार था। विज्ञान की उपलब्धियाँ माँ की नजर में अद्भुत थीं, लेकिन जब भी माँ नागासाकी और हिरोशिमा की चर्चा करतीं, उनका चेहरा बुझ जाता। माँ बुद्धि और विवेक से निष्कर्ष देते हुए कहतीं, 'कुछ भी हो, अपनी सारी उपलब्धियों के बाद भी विज्ञान भगवान नहीं हो सकता। यह प्राण ले सकता है, दे नहीं सकता।' अपने निष्कर्ष से माँ संतुष्ट रहतीं। उनकी आँखों में ईश्वर के प्रति श्रद्धा-भक्ति की चमक थोड़ी और तेज हो जाती।
आज जब मैं अपने जमाने की ओर नजर डालती हूँ तो पाती हूँ कि विज्ञान आदमी के जीवन को बाहरी तौर पर प्रभावित कर ही रहा है, अब उसका असर जीवन की भीतरी तहों पर भी पड़ने लगा है। वह मानवीय भावनाओं और संबंधों के तंतुओं को बनाने-बिगाड़ने लगा है। इस निष्कर्ष को जानने के लिए कुछ अन्य लोगों की दुनिया में प्रवेश किया जाए।
यह रमा और रमेश की दुनिया है। रमा के वे सुख के दिन थे। वह एक सुंदर-सुशिक्षित औरत थी। उसने मनोविज्ञान से एम.ए. किया था। उसका विवाह एक संपन्न प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। रमा की गृहस्थी में सारी आधुनिक सुख-सुविधाओं के साथ अछोर प्यार करने वाला पति था और गोद में प्यारा सा लाड़ला बेटा। ऐसे पति और पुत्र के बाद उसे और क्या चाहिए? रमा में कभी भी इस सुख के आगे अपनी पहचान की कोई इच्छा नहीं जागी। यहाँ तक कि उसने अपने माता-पिता के दिए नाम 'अर्चना' की जगह स्वयं अपना नाम 'रमेश' की तर्ज पर 'रमा' रख लिया। पति उसके सर्वस्व थे - रमा के ईश - रमेश।
वह उमगे मन से सुबह उठती, सजती-सँवरती। सारा दिन पति और पुत्र की देखभाल की जुगाड़ और व्यवस्था में बीत जाता। दिनचर्या तनिक भी उबाऊ और बोझिल नहीं लगती। उन दिनों रमा को लगता जैसे सारी प्रकृति उसके अनुकूल हैं, ग्रह-नक्षत्र हीरे-मोती बिखेरते जा रहे हैं, रमा उन सबको अपने आँचल में भरती जा रही है।
एक दिन सहसा जैसे सबकी गति उलटी हो गई, प्रलय आ गया। कुछ थमता-ठहरता, तब तक रमा के सारे सुख उससे दूर जा चुके थे। रमा ने अपने आस-पास देखा, स्वयं को देखा और पाया कि उसके समेत उसके आस-पास का सबकुछ बदल गया है। ऐसा एक रविवार को हुआ।
हाँ, उस दिन रविवार था। छुट्टी का दिन। किसी तरह की कोई जल्दी नहीं थी। समय भी जैसे थोड़ा अलसाया हो। उतरते नवंबर की धूप चढ़ने को थी। हवा में थोड़ी सी ठंडक आ गई थी। रमा लॉन में पति के साथ इस सुहाने समय का आनंद लेते हुए चाय पी रही थी। तभी हॉकर आया और अखबार दे गया। रमा ने आदतन रविवारीय अपने लिए रखा और बाकी पृष्ठ पति को दे दिए। पति राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबरों को पढ़ रहे थे। रमा फिल्म, साहित्य और संस्कृति के पृष्ठों को पलटते हुए विज्ञापन तक पहुँची। एक विज्ञापन ही प्रलय का कारण बन गया।
विज्ञापन में मुंबई के एक दंपति ने किराए की कोख के लिए निवेदन किया था, साथ ही स्पष्ट किया था कि वे पति-पत्नी संतान पैदा करने के लिए मेडिकली पूरी तरह फिट हैं। उनकी समस्या यह है कि स्त्री की कोख भ्रूण के विकास के लिए उपयुक्त नहीं है। भ्रूण विकास के आवश्यक उपादान स्त्री की कोख दे नहीं पा रही है। अतः संतान पाने की उस दंपति की इच्छा पूरी नहीं हो पा रही है।
विज्ञापन पढ़कर रमा के मन में करुणा जागी। वह सोचने लगी, 'नियति कैसे-कैसे खेल-खेलती है, सृजन की क्षमता तो दी, लेकिन भरण-पोषण की क्षमता से हीन कर दिया। अधूरी क्षमता का क्या मोल? इससे तो अच्छा था तनिक भी क्षमता न दी होती। उसे अपने लाडले का ध्यान आया। उसका मन गर्व से भर गया, उसमें मातृत्व सुख प्राप्त करने की पूरी क्षमता है।' एक पुलक और और संतोष भरी साँस के साथ उसने अखबार पलटकर रख दिया। तभी सहसा उसके मन में विचार आया कि वह इस मामले में कुछ मदद कर सकती है क्या? उसने अखबार फिर से उठाया और अक्षर-अक्षर को ध्यान से पढ़ा। एक बार, कई बार। उसने सोचा, मदद की जानी चाहिए। तो वह स्वयं को प्रस्तुत करे, यह प्रस्ताव भी लगे हाथ मन में उग आया।
पति अपने हिस्से की खबरों में मग्न थे। रमा ने अखबार सामने की टेबल पर रखकर पति को देखा। पति को देखने के बाद उसने अगल-बगल देखा। सब कुछ अपनी जगह पर यथावत दिखा, लेकिन उसके मन में एक नई बात आ चुकी थी और उस बात के पीछे अनेक बातें थीं, प्रश्न थे। प्रतिप्रश्न थे। क्या पति करने देंगे? स्वयं मेरे लिए ऐसा करना क्या उचित होगा?
मन प्रश्नों के उत्तर प्रश्नों से देने लगा। क्यों नहीं?
मन ने धर्म और नीति की व्याख्या शुरू कर दी। शास्त्र तो कहता है कि परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं है तो यह भी परोपकार ही है। यदि हाथ और पैर से परोपकार करते हैं तो इस रूप में क्यों नहीं? उसका अपना स्वार्थ तो कुछ भी नहीं हैं। विज्ञापन में दस लाख रुपये देने की बात कही गई है लेकिन उसे रुपये का लोभ नहीं है। वह तो निःसंतान दंपति को संतान सुख पाने में मदद करना चाहती है।

रमा ने फिर पति को देखा। वे अब भी रमा से बेखबर दूसरे समाचारों में उलझे थे। रमा ने पति से कुछ भी नहीं कहा। कई दिनों तक स्वयं प्रश्नों से भिड़ती रही, उत्तर ढूँढ़ती रही, उचित अनुचित पर विचार करती रही।
घर के काम-काज निबटाती रमा ने कोशिश की कि पति उसके भीतर उठते तूफान से अनजान ही रहें। कई दिन इसी तरह बीत गए। लेकिन प्रेमी जीव पति भाँप गए कि कहीं कुछ गड़बड़ है। वे समझ गए कि रमा का वह खुलापन खोता जा रहा है, जिसके वे कायल थे।
एक रात उन्होंने ही बात छेड़ी, 'देखता हूँ आँखें झुकी-झुकी रहती हैं, मेरे खिलाफ कोई षड्यंत्र चल रहा है क्या?' वाक्य पूरा करते-करते पति थोड़े और करीब आए। रमा को कोई जवाब नहीं सूझा। कोई और दिन होता तो शरारत भरा जवाब तुरत उसके होंठों पर आ गया होता लेकिन आज वह चुप रही।
पति ने फिर कोंचा, 'बात क्या है? चलों मुँह से नहीं बोलना है तो दूसरे तरीके से ही बोलो।' रमा को लगा-रात की काली चादर भारी होती जा रही है। उसने मन को कड़ा किया और उठकर बल्ब जला दिया। बिस्तर से नीचे उतरकर वह आलमारी से अखबार का वह पन्ना उठा लाई, जिसमें विज्ञापन निकला था। पति के सामने विज्ञापन रखते हुए वह चुप बनी रही।
पति अखबार परे सरकाते हुए बोले, 'खबरें सुबह की चीज होती है, रात की नहीं, तुम्हें हुआ क्या है?'
पति कुछ समझ नहीं पा रहे थे।
अबकी रमा ने स्पष्ट शब्दों में कहा, 'मैं इस विज्ञापन के लिए स्वयं को प्रस्तुत करना चाहती हूँ।' एक साँस में रमा ने अपना वाक्य पूरा किया।
'क्या?' कहते हुए पति उठ बैठे।
'होश में तो हो? अपनी बात का मतलब समझती हो? पराए पुरुष का वीर्य धारण करोगी? रुपये चाहिए तुम्हें? कितना? मैं दूँगा, जितना चाहोगी उतना। तुमने ऐसा सोचा कैसे? मैं, मैं क्या नाकाबिल हूँ। क्या चाहिए तुम्हें? एक बेटा है तुम्हारा, तुम संतानहीन नहीं हो।' पति बिना रुके पूछ रहे थे। उनकी साँसें तेज हो गई थीं, चेहरा लाल और आवाज भारी।
उथल-पुथल रमा के भीतर भी थी पर मौन का कवच उसकी रक्षा कर रहा था। उसने स्वयं को सँभाला और दूसरे कमरे में चली गई। रमेश ने बल्ब बंद किया। अँधेरे में जलते-भुनते सोने की कोशिश करते रहे। नींद को न आना था, न आई। रमेश भी उसी कमरे में पहुँच गए। मन के विषाद और रोष शब्दों में उतारने लगे, 'क्या करने जा रही हो तुम? ये बात तुम्हारे मन में आई कैसे? क्यों सोचा तुमने ऐसा? मैं नहीं सह सकूँगा रमा, असंभव है, असंभव। तुम ऐसा कैसे कर सकती हो?'
रमेश पत्नी की मनुहार में तार-तार हो रहे थे। रमा अपने निर्णय को किसी भी तरह बदलने को राजी नहीं थी।
अब घर साँय-साँय करने लगा। लाडले की तोतली बोली घर को गुलजार करने की कोशिश, करती लेकिन बात बनती नहीं।
उस दिन रमेश ड्रॉअर में कोई कागज तलाश रहे थे। उनका कागज तो नहीं मिला, उन्हें विज्ञापन के जवाब में भेजे गए स्पीड पोस्ट की रसीद मिल गई। पता देखकर उनकी चुप्पी चिघ्घाड़ बन गई।
'नहीं मानीं तुम। अपने मन की करने चली हो तो करो, लेकिन मैं यह सब बरदाश्त नहीं कर सकता। अलग रहना होगा तुम्हें। मैं तुम्हें तलाक दे दूँगा।' रमेश के तन-मन में जैसे आग लग गई हो। उसी आग में जलते हुए वे जोर-जोर से चिल्ला रहे थे।
रमा उनकी मनःस्थिति समझ रही थी लेकिन उसे अपने निर्णय में कोई गलती दिखाई नहीं दे रही थी। अगर वह किसी निःसंतान दंपति को संतान-सुख देने का माध्यम बन सकती है तो हर्ज ही क्या है? रमा ने कुछ भी जवाब नहीं दिया। वह जान रही थी, पति के लिए यह परपुरुष से संबंध बनाना है। उसके लिए यह विज्ञान की एक उपलब्धि में शामिल होना है। किसी दूसरे के काम आना है। भीतरी बाहरी अंगो का झमेला वह पालना नहीं चाह रही थी। उसने सोचा, 'आज ही जाने की तारीख भी बता दूँ तो झंझट खत्म हो।'
चीखते-चिल्लाते रमेश दाढ़ी बनाने बैठे। गालों पर क्रीम लगाई और रेजर उठाया ही था कि कमरे से आवाज आई, 'परसों रात मुझे मुंबई जाना है।'

रमेश का रेजर गहरा चल गया। ठुड्ढी से लाल-लाल बूँदें लकीर बन कर निकल गईं। रमेश को लगा, अभी, तुरत अभी, रमा कमरे से निकलेगी, देखकर घबरा जाएगी और देखभाल में जुट जाएगी।
हुआ भी ऐसा ही।
रमा जाने किस कारण से कमरे से निकल आई थी। रमेश की ठुड्ढी से टपकती खून की बूँदों ने उसे परेशान कर दिया था। वह डिटॉल से भीगी रुई से उसका चेहरा पोंछती जा रही थी और रुआँसे स्वर में बोलती जा रही थी, 'बिलकुल बच्चे हो, अपना ख्याल नहीं रख सकते।'
रमा के स्पर्श से रमेश का दर्द गायब हो गया, साथ ही अपनी बात कहने का उसे सही मौका मिल गया था। आँसूभरी आँखों से उसने याचना की, 'नहीं रख सकता। कभी रखा भी नहीं, तुमने ही रखा है, आज तक सँभाला है तुमने ही। अब छोड़कर क्यों जा रही हो? मत जाओ रमा, मत जाओ।'
रमा थोड़ा पसीजी और चुहलभरे अंदाज में माहौल को हलका करने के लिए बोली, 'वापस तुम्हारे पास ही आऊँगी।'
रमेश का दुख गायब हो गया और रोष भड़क उठा, 'असंभव, परपुरुष से जुड़ने जा रही हो तुम। यह पाप है।' रमेश उसे कंधे से झकझोरते हुए बोला।
'पाप कैसा? व्यभिचार कर रही हूँ या चोरी कर रही हूँ। तुमसे बताकर एक दुखी दंपति की मदद कर रही हूँ।' रमा का जवाब था।
'तो धर्म कर रही हो तुम!' रमेश की आवाज गले में अटकती जा रही थी।
रमा ने कोई जवाब नहीं दिया।
मौन की चादर फिर से घर पर तन गई।
इसे रमेश ने ही हटाया। रमा के सामने तलाक के कागजात रखकर। रमेश ने वकील से मिलकर सारी औपचारिकता पूरी कर ली थी। अपने हस्ताक्षर कर दिए थे, सिर्फ रमा के हस्ताक्षर बाकी थे। रमेश ने लाडले को अपने साथ रखना चाहा था। रमा के मन में टीस-सी उठी। उसे इसका अंदेशा था। अपने निर्णय से वह पलटना नहीं चाहती थी। अतः रमेश की बातों को मानते हुए उसने हस्ताक्षर कर दिए।
अंततः मुंबई जाने का समय भी आ गया। जब रमा घर से निकल रही थी, लाडला गहरी नींद में था। रमेश नींद का बहाना करने की कोशिश में थे। रमा ने भरी नजरों से दोनों को देखा और भारी कदमों से बाहर निकल पड़ी। रमेश उसे बाहर छोड़ने नहीं आए, लेकिन रमा को अपनी पीठ पर उनकी निगाहों का स्पर्श लॉन पार करते समय महसूस होता रहा।

शादी के बाद अकेले यात्रा करने का यह रमा का पहला अवसर था। जहाँ भी गई, जब भी गई, पति उसके साथ थे। मुंबई महानगरी की ओर भागती ट्रेन की गति के साथ उसका मन तालमेल नहीं बैठा पा रहा था। रात के अँधेरे में यदा-कदा बजती सीटी उसे चाबुक की तरह लग रही थी। उसकी चोट से वह तिलमिला उठती और अपने किए के औचित्य पर विचार करने लगती। फिर भी उसे लग रहा था कि इसमें गलत जैसा कुछ भी नहीं है। नींद में कभी-कभी लाडले के फड़कते होंठ उसे याद आ रहे थे, नींद से बोझिल अल्हड़ पति की छाती उसे याद आ रही थी। फिर भी इन यादों से बड़ा उसे वह काम लग रहा था, जिसके लिए वह जा रही थी।
मुंबई स्टेशन पर सुंदरम दंपति ने उसका स्वागत किया। यहाँ की सारी व्यवस्था इन लोगों ने पूरी कर ली थी। दूसरे दिन उसे 'यशोदा फर्टिलिटी सेंटर' ले जाया गया। मिसेज सुंदरम और रमा दोनों को अस्पताल में भरती किया गया। दो दिन तो शारीरिक जाँच में बीत गए। तीसरे दिन रमा को ऑपरेशन थियेटर में लाया गया। उसे एक इंजेक्शन दिया गया। औजारों की खटर-पटर उसके कानों तक पहुँच रही थी। सफेद एप्रन पहने कुछ लोग उसके आसपास आ-जा रहे थे। इससे ज्यादा उसे कुछ याद नहीं।
जब उसे होश आया, उसे बताया गया कि मिसेज सुंदरम की कोख से साबूत भ्रूण उसकी कोख में रोपित हो चुका है। उसे अपार संतोष हुआ। आँखें बंद करके वह चुपचाप पड़ी रही। सप्ताह भर बाद उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गई, लेकिन पूरे नौ महीने डॉक्टर की निगरानी में रहना था।
वह भीतर कुछ भी खास महसूस नहीं कर रही थी। उसके पेट के निचले हिस्से में एक चीरा लगा था। कुछ दवाइयाँ दी गई थीं, जिनका उसे सतर्कता के साथ सेवन करना था।
शुरू के कुछ महीने सामान्य ढंग से बीत गए।
एक दुपहरी वह लेटे-लेटे खिड़की से बाहर देख रही थी। हवा पत्तियों से खेल रही थी। रमा को इस खेल में बड़ा रस मिल रहा था। प्रकृति का यह रूप पहले की किसी स्मृति को कुरेद रहा था, पर कौन सी स्मृति-रमा समझ नहीं पाई।
ऐन इसी वक्त रमा को अपने पेट में हरकत महसूस हुई। उसने अपने पेट पर हाथ रखा। फिर से कुछ उठा और शांत हो गया। रमा की पूरी देह काँप उठी। जी सन्न-सन्न करने लगा। कौन है वह, जो पेट में कुलबुला रहा है।
स्मृति कौंध गई। ऐसे ही एक दुपहर को लाडला ने भी हरकत की थी। पति साथ थे। लाडला की हरकत से रमा पहले तो कुछ समझ नहीं पाई और जब समझी, पति-पत्नी प्रतीक्षा करते रहे, पर लाडला गर्भ में गुडुम हुआ पुनः कुलबुलाया भी नहीं। थककर पति-पत्नी अपने में मगन हो गए। थोड़ी देर बाद पति ने रमा के पेट पर हाथ रखकर कहा, 'देखूँ, सपूत सो रहा है या जगा है।' संयोग की बात तुरत हाथ के नीचे मुट्ठी पर गोला उठा। पति ठठाकर हँस पड़े। रमा ठिठक गई। दोनों के अनुभव भिन्न थे, पर भाव एक। उस सुख को रमा किन शब्दों में बाँधे। कोई तो ऐसा शब्द नहीं जो दोनों के सम्मिलित सुख का वाचक हो।
और वह रात! जब रमा ने लाडला को धारण किया था। अलग थी वह रात और उस रात का सुख।
चाँद आकाश के बीचोंबीच था। रात चाँदनी से तरबतर थी। सबकुछ शांत और स्निग्ध। ऐसे में दो प्राणी एक अनुभव से बँधे हुए थे। कुछ पराग कण झरे। बेसुध रमा को जब तन की सुध आई, मन ने जान लिया फल की प्राप्ति होगी।
रमा इस कुलबुलाहट को किस स्मृति से जोड़े? इसके साथ तो कोई स्मृति नहीं, सुख का कोई बोध नहीं। पराए बोध को यंत्र के द्वारा उसने धारण कर लिया है, गोया वह भी एक यंत्र हो।
रमा बेचैन हो उठी। एक चेतन पंचभूत शरीर उसके भीतर पल रहा था। क्या करे वह उसका? परेशानी नए सिरे से सिर उठा रही थी। मुक्त हो जाए वह इससे? लेकिन यह उसका अनचाहा तो नहीं है। सोच-समझकर उसने यह निर्णय लिया है। लेकिन वह करे क्या? कोई भावनात्मक रिश्ता वह उससे जोड़ नहीं पा रही है। अनेक किंतु-परंतु उसने सामने आने लगे। आखिर बोझ बनाकर इसे वह कैसे ढो सकती है? किसी तरल स्वयं को समझाकर, उलझनों को छोड़कर उसने स्वयं को अपने निर्णय पर कायम किया।
समय पूरा होने पर डॉक्टर की राय से ऑपरेशन किया गया। होश आने पर रमा ने देखा, स्वस्थ सुंदर बच्चा उसके बिस्तर के बगल में पालने में लिटाया गया है। उसके पूरी नजर से बच्चे को देखा और लंबी साँस खींची। सीने पर रखी हाथ की चिपचिपाहट ने उसका ध्यान दूसरी ओर खींचा। उसके सीने में बच्चे का जीवन रक्षक पीला तरह पदार्थ उतर रहा था।
नर्स से माँगकर रमा ने बच्चे को गोद में लिया और आँचल में ढँक लिया। वह बच्चे को जितना अपने करीब ला रही थी, उसका मन उतना ही लाडला के लिए तड़प रहा था।
स्वस्थ होते ही रमा ने अनुबंध में पाए दस लाख रुपये अनाथ आश्रम को दान दिए और घर वापस लौटने की तैयारी करने लगी।

रमा और रमेश की दुनिया से गुजरते हुए क्या यह महसूस नहीं हो रहा है कि इस जमाने में संबंधों की कोमल सतह पर कुछ नागफनी, कुछ क्रोटन निकलने लगे हैं। लेकिन इन्हीं के बीच खुशबू समेटे कोई फूल भी है। रमा इस फूल की खुशबू से परिचित है, इसकी कीमत पहचानती है। उसे विश्वास है कि वह पति को मना लेगी।

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